Skandapurāṇa Adhyāya 55 E-text generated on February 22, 2017 from the original TeX files of: Yokochi, Yuko, ed. The Skandapurāṇa. Vol.III. Adhyāyas 34.1-61, 53-69. The Vindhyavāsinī Cycle. Critical Edition with an Introduction & Annotated English Synopsis. Leiden/Groningen: Brill & Egbert Forsten, 2013. SP0550010: सनत्कुमार उवाच| SP0550011: अथ तं सहसायातमपश्यत्साचलात्मजा| SP0550012: ऋषिभिस्तैर्महाभागैः समन्तात्परिवारितम्| SP0550013: रश्मिभिस्तेजसां योनिं मध्याह्न इव भास्करम्|| १|| SP0550021: सा तमर्घ्येण पाद्येन मधुपर्केण चैव ह| SP0550022: पूजयामास रुद्राणी चतुर्वक्त्रमुपागतम्|| २|| SP0550030: ब्रह्मोवाच| SP0550031: लोकस्य जननी भूत्वा धारयित्वा जगत्तथा| SP0550032: किमिदं तपसा भूयो लोकं दग्धुमिहेच्छसि|| ३|| SP0550041: मा सृष्ट्वा जगदेतत्त्वं तपस्यन्ती विनाशय| SP0550042: बुद्ध्वैवं धारयस्वेमं लोकं देवि नमस्तव|| ४|| SP0550051: त्वत्तो रुद्रेण लोको ऽयमहं चैव पुरानघे| SP0550052: सृष्टाः स्म वरदे देवि मा नः कृत्वा विनाशय|| ५|| SP0550061: तपसा तव रुद्राणि जगत्स्थावरजङ्गमम्| SP0550062: तप्यते ग्रीष्ममध्याह्ने जलात्पद्ममिवोद्धृतम्|| ६|| SP0550071: किं वा ते हृदये देवि यद्यपि स्यात्सुदुष्करम्| SP0550072: वरं वृणीहि शर्वाणि दातास्मि हिमवत्सुते|| ७|| SP0550080: देव्युवाच| SP0550081: वरदो ऽसि यदीशान मम देव चतुर्मुख| SP0550082: अयं भक्तो ऽनुरक्तश्च मम नित्यं प्रियः प्रभो|| ८|| SP0550091: व्याघ्रस्य तावद्यच्छस्व ततो दास्यसि मे वरम्| SP0550092: अद्य वर्षसहस्रं वै स्थितस्यास्य ममाग्रतः|| ९|| SP0550101: ध्यायतो ऽनिमिषस्यैव स्तब्धकर्णस्य लोकप| SP0550102: अस्मै दत्स्व वरं देव नास्मि तावद्वरार्थिनी|| १०|| SP0550110: ब्रह्मोवाच| SP0550111: एष तिर्यग्दुरात्मा च त्वां भक्षयितुमागतः| SP0550112: नास्य शुद्धं मनो देवि क्रूरो ऽयं पापचेतनः| SP0550113: पश्यैनं दुष्टमनसं नास्य श्रेयो मनस्त्वयि|| ११|| SP0550120: सनत्कुमार उवाच| SP0550121: अथ सा तद्वचः श्रुत्वा रुद्राणी लोकभावनी| SP0550122: दिव्येन चक्षुषापश्यदज्ञानात्कृतसाहसम्|| १२|| SP0550131: अत्यन्तभक्तः पूर्वं मे जातिदोषेण दूषितः| SP0550132: विदितार्था ततो भूत्वा उवाच हिमवत्सुता|| १३|| SP0550141: भगवन्को हि लोकेषु तिर्यक्त्वे सति निश्चलः| SP0550142: स्तब्धकर्णेक्षणो दिव्यमहो ऽप्येकमभोजनः|| १४|| SP0550151: अवतिष्ठेत किं यो ऽयं सहस्रमवतिष्ठत| SP0550152: वर्षाणां सुमहातेजा नायं तिर्यक्सुसंस्कृतः|| १५|| SP0550161: भवत्वयं दुष्टचेता अदुष्टो वा महाबलः| SP0550162: ममानुग्राह्य इत्येवं वरो ह्यस्मै प्रदीयताम्|| १६|| SP0550170: सनत्कुमार उवाच| SP0550171: ततः स भगवान्देवश्चतुर्वक्त्रः पितामहः| SP0550172: उवाच वचनं देवीमृषीणां शृण्वतां तदा|| १७|| SP0550181: आर्याणां दस्यवो ऽपीह संसर्गात्सिद्धिमाप्नुयुः| SP0550182: यथायं क्रूरकर्मापि सिद्धिं यास्यत्यनुत्तमाम्|| १८|| SP0550191: तस्मादार्याः सदा सेव्या नित्यं पापकृतापि हि| SP0550192: सिद्धिमेति नरः क्षिप्रमपापानां समीपगः|| १९|| SP0550201: अनुग्राह्यस्तवानिन्द्ये पापो ऽयं दुष्टचेतनः| SP0550202: अतो ऽस्मै ब्रूहि देवेशे वरो यस्तव रोचते|| २०|| SP0550210: देव्युवाच| SP0550211: अमरो जरया त्यक्त अक्षयश्चाव्ययस्तथा| SP0550212: महायोगबलोपेतो महदैश्वर्यसंयुतः| SP0550213: गणेश्वरो ममेष्टश्च भवत्वेष यदिच्छसि|| २१|| SP0550220: ब्रह्मोवाच| SP0550221: एवं भवतु भद्रं ते सर्वमेतद्भविष्यति| SP0550222: पञ्चालस्य च यक्षो ऽयं प्रतीहारो ऽभवत्पुरा|| २२|| SP0550231: त्वया मया च यद्यस्य कृतेयं नन्दिरीदृशी| SP0550232: तस्माद्गमिष्यति ख्यातिं सोमनन्दीति नामतः|| २३|| SP0550241: यश्चैनं कीर्तयेद्दुर्गे कान्तारेषु भयेषु च| SP0550242: शार्दूलसिंहद्वीपिभ्यो न भयं तस्य जायते|| २४|| SP0550251: वद त्वमपि चेशानि यस्ते प्रियमनोरथः| SP0550252: यावद्ददानि सर्वं ते नियोगात्परमेश्वरात्|| २५|| SP0550260: देव्युवाच| SP0550261: इच्छामि भगवन्दिव्यं वर्णं कनकसप्रभम्| SP0550262: गौरीति लोके ख्याता च भवेयं कमलोद्भव|| २६|| SP0550270: ब्रह्मोवाच| SP0550271: एवमस्तु जगन्मातर्यदिच्छसि महामते| SP0550272: अन्यं वरय भद्रं ते वरं यत्प्रददानि ते|| २७|| SP0550281: महद्धीदं तपस्तप्तं भवत्या लोकभावनम्| SP0550282: नानुरूपो वरस्तस्य तस्मादन्यो ऽपि मृग्यताम्|| २८|| SP0550290: देव्युवाच| SP0550291: इच्छामि भगवन्पुत्रं सर्वधर्मभृतां वरम्| SP0550292: महाबलं महोत्साहं सर्वलोकनमस्कृतम्|| २९|| SP0550300: ब्रह्मोवाच| SP0550301: पुत्रस्ते भविता देवि महायोगबलान्वितः| SP0550302: अजेयः सर्वभूतानामष्टैश्वर्यगुणान्वितः|| ३०|| SP0550311: जेता हन्ता तथादेष्टा अजरो ऽवध्य एव च| SP0550312: अनावेश्यश्च सततं सर्वेषां प्राणिनां वरः|| ३१|| SP0550321: सदाबालो ऽथ सुभगो धर्मज्ञो धर्मवत्सलः| SP0550322: देवब्राह्मणगोप्ता च विद्वान्सर्वज्ञ एव च|| ३२|| SP0550331: ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च देवद्विट्संघहा तथा| SP0550332: अयोनिजो महातेजा लोकानां सुखकृच्च हि| SP0550333: शनैरेतदुवाचासौ ततश्च विरराम ह|| ३३|| SP0550340: सनत्कुमार उवाच| SP0550341: वरान्स दत्त्वा देवेशः कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम्| SP0550342: विमानं तं समारुह्य स्वं लोकमगमत्तदा|| ३४|| SP0550351: रुद्राण्यपि गते तस्मिन्सोमनन्दिपुरःसरा| SP0550352: स्थिताकाशं समास्थाय रोहिणीव बुधानुगा|| ३५|| SP0550361: मन्त्रानुगेव गायत्री जयन्तेन शची यथा| SP0550362: तथा सा भाति रुद्राणी सोमनन्दिपुरःसरा|| ३६|| SP0550371: य इमं पठते सदा विपश्चित्पुरुषः प्रातरतन्द्रितो हि कश्चित्| SP0550372: कुरुते नभयं हि सोमनन्दी वरदस्तस्य हरश्च सोमनन्दी|| ३७|| SP0559999: इति स्कन्दपुराणे पञ्चपञ्चाशो ऽध्यायः||