Skandapurāṇa Adhyāya 56 E-text generated on February 22, 2017 from the original TeX files of: Yokochi, Yuko, ed. The Skandapurāṇa. Vol.III. Adhyāyas 34.1-61, 53-69. The Vindhyavāsinī Cycle. Critical Edition with an Introduction & Annotated English Synopsis. Leiden/Groningen: Brill & Egbert Forsten, 2013. SP0560010: व्यास उवाच| SP0560011: भगवन्यत्त्वयाख्यातं पूर्वं नरकवर्णने| SP0560012: दुष्कृतं कर्म कृत्वा तु नरा नरकगामिनः| SP0560013: भवन्ति सुकृताः स्वर्गे सर्वसौख्यसमायुताः|| १|| SP0560021: ब्राह्मणा दुष्कृतं कृत्वा गत्वा दुर्गतिमापदम्| SP0560022: कथं भूयः समायान्ति स्वर्गसौख्यफलं महत्|| २|| SP0560031: योनीर्वा कथमागम्य बह्वीः संकरजातिषु| SP0560032: भूयः सुकृतिनो भूत्वा प्राप्नुवन्ति शुभां गतिम्|| ३|| SP0560040: सनत्कुमार उवाच| SP0560041: शृणु व्यास पुरावृत्तं दशार्णेषु तु यच्छुभम्| SP0560042: सप्तानां द्विजशिष्याणामशुभं शुभमेव च|| ४|| SP0560051: आसीत्सुपर्वा विख्यातः कौशिको ब्राह्मणः शुचिः| SP0560052: धार्मिकश्च वदन्यश्च विद्वान्विप्रैः सुपूजितः|| ५|| SP0560061: तस्य शिष्या बभूवुर्हि सप्त दुर्मेधसस्तु ते| SP0560062: गुरुशुश्रूषणे रक्ता नामतस्तान्निबोध मे|| ६|| SP0560071: आत्रेयः कण्डरो नाम उपमन्युश्च दामनः| SP0560072: शाण्डिल्यश्चैव हालो ऽभूद्गार्ग्यश्च विदलस्तथा|| ७|| SP0560081: शैशिरो गौतमश्चैव दण्डकीलश्च काश्यपः| SP0560082: विदर्भश्चैव हारीत इतीमे सप्त विश्रुताः|| ८|| SP0560091: उपाध्यायो ऽथ तान्विप्रान्प्रोवाचेदं महातपाः| SP0560092: अचिराद्गामितो गत्वा याज्यदत्तां सुरूपिणीम्| SP0560093: गत्वानयत होमार्थे शीघ्रं माहिष्मतीं पुरीम्|| ९|| SP0560101: त एवमुक्तास्तेनैव माहिष्मत्यास्त्वतन्द्रिताः| SP0560102: गामादाय निवर्तन्तो मृत्तिकावतिमन्ततः|| १०|| SP0560111: अनावृष्ट्या ततस्ते तु दुर्भिक्षे परिवर्तति| SP0560112: क्षुधापरिगताः सर्वे किंभक्षाः सम्बभूविरे|| ११|| SP0560121: सप्तमे ऽहनि जाते च निराहाराः सुदुःखिताः| SP0560122: अमन्त्रयन्त गामेतां भक्षयाम किमास्यते|| १२|| SP0560131: तेषां यः कण्डरो नाम आत्रेयकुलसम्भवः| SP0560132: स तानुवाच मा धेनुं भक्षयाम गुरोरिमाम्|| १३|| SP0560141: गुरोरर्थे हि नः श्लाघ्यो मृत्युरप्यविचक्षणाः| SP0560142: मा गुरोः क्रोधनिर्दग्धा यास्याम निधनं वयम्|| १४|| SP0560151: ते यदा तद्वचो नैव जगृहुः क्षुत्प्रपीडिताः| SP0560152: स तदोवाच भूयस्तानिदं वचनमर्थवत्|| १५|| SP0560161: यदि वो ऽवधृतं विप्रा भक्षणे ऽस्यास्तपोधनाः| SP0560162: मा वृथा भक्षयामैनां पित्र्यर्थे प्रोक्षयामहे|| १६|| SP0560171: मा नो दोषद्वयेनेह लोपो भवतु शोभनाः| SP0560172: एवं ह्यल्पेन दोषेण वयं योक्ष्याम सर्वथा|| १७|| SP0560181: त एवमुक्ताः सम्यक्तु वचस्तस्यावधार्य च| SP0560182: प्रोक्षयामासुरव्यग्राः पित्र्यर्थे तां पयस्विनीम्|| १८|| SP0560191: ततः संस्कृत्य विधिवन्निवेद्य च महामुने| SP0560192: हुताग्नयस्ततो भूत्वा प्रत्येकमुपयुज्य च| SP0560193: वत्समेकं गले बद्ध्वा आनिन्युर्गुरवे तदा|| १९|| SP0560201: अथ दृष्ट्वा स तं वत्सं धेनुं पप्रच्छ तान्द्विजः| SP0560202: त ऊचुः पथि शार्दूलो ऽवधीत्तामिति निर्घृणाः|| २०|| SP0560211: अथ तेषां वचः श्रुत्वा शङ्कया च दुरात्मनाम्| SP0560212: दिव्येन चक्षुषापश्यद्भक्षितां तैर्महातपाः|| २१|| SP0560221: ततः स रोषाद्रक्ताक्षो निर्दहन्निव तांस्तदा| SP0560222: उवाच वत्सं दृष्ट्वा च कृपया दुःखपीडितः|| २२|| SP0560231: युष्माभिर्भक्षिता सा हि तथ्यं न कथितं च मे| SP0560232: कर्मणा तेन तस्माद्वो गतिः कष्टा भविष्यति|| २३|| SP0560241: प्रसादितः स तैः शिष्यैर्ब्राह्मणः सुमहाद्युतिः| SP0560242: कृपया स च तानाह भूयः सर्वानिदं वचः|| २४|| SP0560251: यदुक्तं तन्मया तथ्यं न तन्मिथ्या भविष्यति| SP0560252: येषां तु कृतवन्तः स्थ ते वो धास्यन्ति तच्छुभम्|| २५|| SP0560261: मत्समीपे च न स्थेयमिदानीं वः कथंचन| SP0560262: दृष्ट्वा वत्समिमं बालं मा वो धक्ष्यामि गच्छत|| २६|| SP0560271: अथ ते सहिताः सर्वे विसंज्ञा नष्टचेतसः| SP0560272: कालेन समयुज्यन्त चिन्तयन्तो गुरोर्वचः|| २७|| SP0560281: दशार्णा नाम सा व्यास सरित्पुण्या सदाजला| SP0560282: तस्यास्तीरे वनं दिव्यं विश्रुतं तत्सुभास्वरम्|| २८|| SP0560291: तत्र व्याधो ऽभवच्छूरः क्षुपको नाम वीर्यवान्| SP0560292: तस्य पुत्राभवंस्ते वै चितकायां महाबलाः|| २९|| SP0560301: चितका सम्प्रसूता तु पुत्रांस्तान्सप्त संमतान्| SP0560302: व्याधाः सर्वे ऽभवंस्ते वै चैतका इति विश्रुताः|| ३०|| SP0560311: चरन्ति सधनुष्कास्ते घ्नन्तो वै मृगपक्षिणः| SP0560312: सिंहान्व्याघ्रान्गजांश्चैव वराहादींश्च सर्वशः|| ३१|| SP0560321: तेषां नामानि यानि स्म व्याधत्वे तानि मे शृणु| SP0560322: काण्डरो ऽर्जुनको नाम दामनः सिंहको ऽभवत्| SP0560323: हालो ऽभूद्व्याघ्रकश्चैव विदलः शरभस्तथा|| ३२|| SP0560331: शैशिरो हिमवांश्चैव हस्तिको दण्डकीलकः| SP0560332: विदर्भो वज्रकश्चैव नामान्येतानि तेषु हि|| ३३|| SP0560341: एकतस्ते ऽटवीं घोरां चरन्ति पिशिताशनाः| SP0560342: हिंस्राः सत्त्वान्तकाः सर्वे योनिं दुष्टामुपागताः|| ३४|| SP0560351: कदाचिद्विचरन्तस्ते मृगान्घ्नन्तस्तथैव च| SP0560352: उपाध्यायाश्रमं प्राप्ताः कर्मणा सुकृतेन ह|| ३५|| SP0560361: तत्र तेषां भयोद्विग्नाः सर्व एवाभवन्मृगाः| SP0560362: मृगान्भीतान्समालक्ष्य स विप्रः सुमहातपाः| SP0560363: न्यवेक्षत दिशः सर्वा व्याधांश्चापश्यदागतान्|| ३६|| SP0560371: स्वशिष्यांस्तान्परिज्ञाय ध्यानाद्व्याधत्वमागतान्| SP0560372: प्रोवाच करुणाविष्टस्तेषामेव शुभेप्सया|| ३७|| SP0560381: शुश्रूषितः पुरा विप्रैर्युष्माभिरहमादरात्| SP0560382: कर्मणा तेन चेदानीम् - - - - - - - -|| ३८|| SP0560391: - - - - - - - - गोवध्याकृतशापिताः| SP0560392: व्याधत्वमिह सम्प्राप्ताः कुत्सितं हिंस्रवृत्तिमत्|| ३९|| SP0560401: सा च गौः पितृकार्येण भक्षिता वो न हिंसया| SP0560402: तस्माद्यूयमितो भ्रष्टा जातिस्मरणसंयुताः|| ४०|| SP0560411: मृगाः कालञ्जरे भूत्वा चक्रवाकाः पुनर्ह्रदे| SP0560412: भूयश्च मानुषा भूत्वा जातौ जातौ सचेतनाः|| ४१|| SP0560421: योगयुक्ता महात्मानो मत्प्रसादादतन्द्रिताः| SP0560422: सर्वकिल्बिषनिर्मुक्ता ब्रह्मलोकमवाप्स्यथ|| ४२|| SP0560431: एतच्छ्रुत्वा ततस्तेषां पूर्वा स्मृतिरजायत| SP0560432: उपाध्यायो ऽयमस्माकमिति बुद्धौ तदाभवत्|| ४३|| SP0560441: ततः कर्म जुगुप्सन्तः पूर्वजातिकृतं च यत्| SP0560442: प्रदक्षिणमुपावृत्य दशार्णामभितो ययुः|| ४४|| SP0560451: दशार्णातीरमासाद्य संमन्त्र्य च परस्परम्| SP0560452: जातिं पूर्वां स्मरन्तस्ते मृत्युमेव प्रवव्रिरे|| ४५|| SP0560461: निश्चितानां ततस्तेषां काण्डरो यो ऽभवद्द्विजः| SP0560462: व्याधो ऽर्जुनकनामा स इदं वचनमब्रवीत्|| ४६|| SP0560471: भवन्तो यन्मया पूर्वमुक्तास्तन्न कृतं हि वः| SP0560472: इदानीं समनुप्राप्तं मावमन्यत मे वचः|| ४७|| SP0560481: श्रेयो वो ऽहं प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं कुरुतैव च| SP0560482: जातिमेतां विमोक्ष्याम येन हास्याम न स्मृतिम्|| ४८|| SP0560491: पुत्रानिच्छन्ति पितरः पुष्ट्यर्थं तारणाय च| SP0560492: वयं च जनितास्तेन व्याधेन सुमहात्मना|| ४९|| SP0560501: संवर्धिताश्च क्लेशेन मात्रा पित्रा तथैव च| SP0560502: अनापृष्ट्वा कथं तौ तु मृत्युमिच्छामहे वयम्|| ५०|| SP0560511: ते यूयं यदि मन्यध्वमापृष्ट्वा तौ विसर्जिताः| SP0560512: योक्ष्यामः श्रेयसात्मानमेतद्वो हितमुत्तमम्|| ५१|| SP0560521: न चेद्विसर्जयेतां तौ ताभ्यां शुश्रूषणे रताः| SP0560522: ततस्तावद्धि तिष्ठामो यावत्कालेन तौ मृतौ|| ५२|| SP0560531: ततो वयं कृतात्मान अनृणाः सर्वथापि च| SP0560532: गमिष्यामो गतिं पुण्यामेतन्नः श्रेय उत्तमम्|| ५३|| SP0560541: एवमस्त्विति ते सर्वे गृहीत्वा तस्य तद्वचः| SP0560542: चिन्तयन्तः पुराजन्म गृहानेवाभिजग्मिरे|| ५४|| SP0560551: तानागतान्पिता दृष्ट्वा माता च चितका तदा| SP0560552: तुष्ट्या परमया युक्ता इदं तानूचतुर्वचः|| ५५|| SP0560561: पुत्रकाः सुचिरादद्य यूयमभ्यागता गृहान्| SP0560562: अद्यावां सुदृढं मूढौ किं चिरं कृतमित्युत|| ५६|| SP0560570: चितकोवाच| SP0560571: क्षुधाविष्टः पिता वो ऽद्य पुत्रस्नेहेन पुत्रकाः| SP0560572: नात्ति मांसमिमं पक्वं सुरां च न पिबत्ययम्|| ५७|| SP0560581: ते ऽपि जातिं जुगुप्सन्तः सर्वे वै पापयोनयः| SP0560582: इदमूचुः क्षुपं चैव चितकां च शुभं वचः|| ५८|| SP0560591: भवन्तो ऽश्नन्त्वविघ्नेन पुष्टये शान्तये ऽपि च| SP0560592: नाश्नीम वयमद्याहः श्वो भोक्ष्यामो न संशयः|| ५९|| SP0560601: ततस्तौ वृद्धभावेन नबुभुक्षासहौ तदा| SP0560602: आहारयेतामाहारं सुतुष्टौ च बभूवतुः|| ६०|| SP0560611: तौ तु तुष्टौ समालक्ष्य सर्वे ऽथ शिरसा नताः| SP0560612: ऊचुः प्रमनसो वाक्यमेकमत्येन ते तदा|| ६१|| SP0560621: पितरौ परिनिर्विण्णा वयमेतेन जन्मना| SP0560622: इच्छामस्तं परित्यक्तुं तन्नः संमन्तुमर्हथः|| ६२|| SP0560631: तेषां तद्वचनं श्रुत्वा पिता तानिदमब्रवीत्| SP0560632: परिष्वज्य सुतान्सर्वान्बाष्पपर्याकुलेक्षणः|| ६३|| SP0560641: अहमासं पुरा पुत्रा ब्राह्मणः संशितव्रतः| SP0560642: दिवोदासस्य राजर्षेः सखा परमसंमतः|| ६४|| SP0560651: स कदाचिद्वने रम्ये धनुषा कुरुते भृशम्| SP0560652: योग्यां तमहमाहेदं न त्वं वेत्सि धनुर्नृप| SP0560653: अजानन्किमिदं क्लेशं व्यर्थमेव करोषि च|| ६५|| SP0560661: प्रोवाच राजा विप्राणां मन्त्रज्ञानं विधीयते| SP0560662: आमन्त्रणे भोजने च वाचा च कुशलाः सदा|| ६६|| SP0560671: स मया हसता प्रोक्त आनयस्व धनुर्मम| SP0560672: यावत्क्षिपामि लक्षाय शरं यत्र ब्रवीषि माम्|| ६७|| SP0560681: स तथोक्तस्तदा मह्यं सशरं धनुरर्पयत्| SP0560682: तेनोक्तं लक्षमुद्दिश्य शरः क्षिप्तो मया ततः|| ६८|| SP0560691: तत्राभवत्स्थितो विप्रो मृगचारी दृढव्रतः| SP0560692: स तेन विद्धस्तेजस्वी ममार सहसैव च|| ६९|| SP0560701: सो ऽहं तं मृतमालक्ष्य राज्ञा तेन विसर्जितः| SP0560702: ब्रह्मवध्याभयाद्घोरात्पितरं परिपृष्टवान्|| ७०|| SP0560711: प्रोवाच न भयं ते ऽस्ति ब्रह्मवध्या कुतस्तव| SP0560712: जात्यन्तरशतं गत्वा - - - - - - - -| SP0560713: - - - - - - - - दृष्टमेतत्स्वयम्भुवा|| ७१|| SP0560721: ततो ऽहं परया भक्त्या पितृशुश्रूषणे रतः| SP0560722: अनया भार्यया सार्धं स्थितो वै बहुलाः समाः|| ७२|| SP0560731: स कदाचित्पिता चापि मम कालेन संयुतः| SP0560732: अवतस्थे च तत्रैव अनयैव सहानघाः|| ७३|| SP0560741: अथ कालेन महता गवाहं विनिपातितः| SP0560742: अग्निस्थं चावरूढैषा रुदन्ती मां शुभेक्षणा|| ७४|| SP0560751: सो ऽहं गवा हतश्चेति मृगचारिवधेन च| SP0560752: व्याधजन्मनि विप्रत्वाद्भ्रष्टः पापेन जज्ञिवान्|| ७५|| SP0560761: जातो ऽस्मि जन्मनां पुत्राः सहस्रं भृशदारुणम्| SP0560762: पितृभक्त्या च हि तया सम्यगाराधनेन च| SP0560763: नानशन्मे स्मृतिः पुत्रा ज्ञानं मे सम्प्रवर्तते|| ७६|| SP0560771: जानामि ब्राह्मणान्भ्रष्टान्सर्वान्वै गोकृतेन वः| SP0560772: गुरोश्चैवानुशापेन भ्रष्टसंज्ञांस्तथैव च|| ७७|| SP0560781: लब्धसंज्ञांस्तथा चैव सर्वानद्य महाबलाः| SP0560782: माता चेयं हि वो वेत्ति साध्वी नित्यं पतिव्रता|| ७८|| SP0560791: यदहं वो ब्रवीम्यद्य तत्कुरुध्वं मम प्रियम्| SP0560792: अवाप्स्यथ ततः श्रेयः सर्वे यूयमतन्द्रिताः| SP0560793: अनामया विशोकाश्च न च संज्ञां प्रहास्यथ|| ७९|| SP0560801: पुत्रा जन्मेदमन्त्यं मे मनुष्यत्वे न संशयः| SP0560802: इतो मृतेन गन्तव्यं मया ब्रह्मसदः शुभम्|| ८०|| SP0560811: ते यूयं मां प्रतीक्षध्वं किंचित्कालमतन्द्रिताः| SP0560812: स्वर्गते मयि यच्छ्रेयस्तत्करिष्यथ मा शुचः|| ८१|| SP0560821: अवश्यं च सुतैर्माता पिता चैव सुखैधितैः| SP0560822: शुश्रूषितव्यौ नान्यो ऽस्ति धर्मो ऽस्माद्बलवत्तरः|| ८२|| SP0560830: सनत्कुमार उवाच| SP0560831: ततस्ते विस्मिता भूत्वा नष्टशोका विमत्सराः| SP0560832: तत्कालं पर्युपासन्त यावत्तौ जहतुस्त्वसून्|| ८३|| SP0560841: तयोरतीतयोः सम्यक्कृत्वा ते ऊर्ध्वदेहिकम्| SP0560842: दशार्णायां महानद्यां विधिनानाशकेन ह|| ८४|| SP0560851: असाधयन्त आत्मानं व्याधाः सप्तापि ते तदा| SP0560852: कालञ्जरे गिरौ भूयो मृगाः सप्तैव जज्ञिरे|| ८५|| SP0560861: स्मरन्तस्तत्र ते जातिं मरुत्प्रपतनेन ह| SP0560862: साधयित्वा तदात्मानं चक्रवाकाश्च जज्ञिरे|| ८६|| SP0560871: मृगत्वे यानि नामानि तेषां तानि निबोध मे| SP0560872: दीर्घजीवी अनाधृष्टो वायुवेगो ऽतिकम्पनः| SP0560873: श्रीपार्श्वः शङ्खपाच्चैव सोमलक्ष्यश्च सप्तमः|| ८७|| SP0560881: जातिं स्मरन्तस्ते पूर्वामन्योन्यमभिमान्य च| SP0560882: सहिताः सहसा प्राणान्मरुत्प्रपतनाज्जहुः|| ८८|| SP0560891: ते सप्तसंख्या व्याधेषु मृगेषु च तथा पुनः| SP0560892: जन्म प्राप्य पुनर्जाताः सरिद्वीपे खगास्ततः|| ८९|| SP0560901: सरीद्वीप इति ख्यातं कम्पिल्ये वै सरः शुभम्| SP0560902: तत्रापि चक्रवाकास्ते सप्ताजायन्त सोदराः|| ९०|| SP0560911: मरुद्देवः शिखण्डी च रथनेमिस्वरस्तथा| SP0560912: शिखी जीवो ऽथ वृक्षश्च ध्वज इत्येव ते स्मृताः|| ९१|| SP0560921: तेषां तत्रोपपन्नानां कदाचिदणुहः स्वयम्| SP0560922: कम्पिल्यको महातेजा राजा तं देशमागमत्|| ९२|| SP0560931: स तत्सरः समासाद्य स्त्रीभिः सह मुदान्वितः| SP0560932: रेमे मन्दाकिनीं प्राप्य अप्सरोभिरिवामरः|| ९३|| SP0560941: तं क्रीडमानं संदृश्य मरुद्देवस्य तत्र वै| SP0560942: चक्रवाकस्य तस्यासीत्स्पृहा तान्विषयान्प्रति|| ९४|| SP0560951: यद्यस्याहं सुतः स्यां वै प्राप्नुयां राज्यमेव च| SP0560952: ततो ऽहं विषयानेतान्प्राप्नुयां नात्र संशयः|| ९५|| SP0560961: तस्य तच्चिन्तितं ज्ञात्वा द्वितीयश्चक्रसाह्वयः| SP0560962: शिखण्डीति समाख्यातः स तमाह तदा हसन्|| ९६|| SP0560971: भवता राजपुत्रत्वं राज्यं चैव विचिन्तितम्| SP0560972: तत्राहं ते पुरोधाः स्यां ममाप्येष मनोरथः|| ९७|| SP0560981: ताभ्यां तच्चिन्तितं ज्ञात्वा रथनेमिस्वरस्ततः| SP0560982: अचिन्तयत तत्राहं सचिवः स्यां तव प्रभो|| ९८|| SP0560990: सनत्कुमार उवाच| SP0560991: तेषां तथा चिन्तयतां त्रयाणामितरे ततः| SP0560992: चक्राह्वयास्तदा क्रुद्धा इदं तानब्रुवन्वचः|| ९९|| SP0561001: अचिन्तनीयं युष्माभिश्चिन्तितं विषयार्थिभिः| SP0561002: तस्माद्यूयमितो मुक्ता अवाप्स्यथ मनोरथम्|| १००|| SP0561011: ताञ्छप्त्वा दीनमनसः समालक्ष्य पुनश्च ते| SP0561012: येन तद्राजपुत्रत्वं चिन्तितं राज्यमेव च|| १०१|| SP0561021: कृपया तमिदं वाक्यमब्रुवन्नष्टचेतसम्| SP0561022: बहुसान्त्वगुणोपेतं स्वयं दुःखितवद्यथा|| १०२|| SP0561031: वयं तव प्रभावेन तीर्णाः कृच्छ्रमिदं प्रभो| SP0561032: भवान्मतिप्रदो ऽस्माकं सेतुभूतो मतो हि नः|| १०३|| SP0561041: भवान्यदि हि न ब्रूयात्पितॄणां गौर्निवेद्यताम्| SP0561042: शुश्रूषेमश्च न पितॄन्न स्म संज्ञा ततो भवेत्|| १०४|| SP0561051: तव प्रभावादेतन्नो योगैश्वर्यप्रवर्तनम्| SP0561052: ततो वयं पुनः श्रेयस्तव ब्रूमः शृणुष्व नः|| १०५|| SP0561061: तावत्त्वं सक्तहृदयो भविष्यसि नराधिपः| SP0561062: यावदस्मद्वचस्तथ्यं न श्रोष्यसि सहायवान्| SP0561063: योगज्ञानमवाप्यैनं प्राप्स्यसे च शुभां गतिम्|| १०६|| SP0561070: सनत्कुमार उवाच| SP0561071: ततस्ते सहिताः सर्वे युक्तात्मानो महाखगाः| SP0561072: खगत्वं सम्परित्यज्य योनिमन्यां प्रपेदिरे|| १०७|| SP0561081: सर्वे ततस्ते मुनिकोपदग्धा व्याधा मृगाश्चक्रसमाह्वयाश्च| SP0561082: जाताः पुनर्मानुषविग्रहेषु योगेश्वरास्ते त्रय एव राज्ये|| १०८|| SP0569999: इति स्कन्दपुराणे षट्पञ्चाशो ऽध्यायः||