Skandapurāṇa Adhyāya 67 E-text generated on February 22, 2017 from the original TeX files of: Yokochi, Yuko, ed. The Skandapurāṇa. Vol.III. Adhyāyas 34.1-61, 53-69. The Vindhyavāsinī Cycle. Critical Edition with an Introduction & Annotated English Synopsis. Leiden/Groningen: Brill & Egbert Forsten, 2013. SP0670010: सनत्कुमार उवाच| SP0670011: आजग्मुः कौशिकीं द्रष्टुमथ विन्ध्यं दिवौकसः| SP0670012: आदित्या वसवो रुद्रा मरुत्वान्मरुतो ऽश्विनौ|| १|| SP0670021: धर्माङ्गिरोशनोदक्षवसिष्ठभृगुकश्यपाः| SP0670022: पुलस्त्यपुलहागस्त्यसनकात्रिसनन्दनाः|| २|| SP0670031: अप्सरोयक्षगन्धर्वाः सिद्धा नागमहोरगाः| SP0670032: उपवेदाश्च यज्ञाश्च वेदा विद्याः सरस्वती|| ३|| SP0670041: समुद्राः सरितः शैलास्तीर्थानि विविधानि च| SP0670042: मातरो लोकपालाश्च नक्षत्राणि ध्रुवो ग्रहाः|| ४|| SP0670051: अथोचुर्देवता देवीं द्युतिमत्यो महाद्युतिम्| SP0670052: प्रहृष्टा हृष्टमनसामासीनामसुरद्विषः|| ५|| SP0670061: दानवेन्द्रौ महासत्त्वौ त्वया त्रैलोक्यकण्टकौ| SP0670062: निघ्नत्या देवि लोकानां दुःखशल्यमपाकृतम्|| ६|| SP0670071: ऋषयः पावनं देवि हविर्जुह्वन्ति साम्प्रतम्| SP0670072: छन्दांस्यधीयते चोच्चैराचरन्ति व्रतानि च|| ७|| SP0670081: यज्ञो ऽयमधुना विप्रैरीज्यते बहुदक्षिणः| SP0670082: उटजेषु च विश्वस्ता मुनयः शेरते सुखम्|| ८|| SP0670091: आसते निर्भया देवि सन्तः सन्मार्गमाश्रिताः| SP0670092: आविर्भूतः पुनर्लोके विच्छिन्नः सत्क्रियापथः|| ९|| SP0670101: लोकपालाः शिरांस्युच्चैस्त्वत्प्रसादाच्च बिभ्रति| SP0670102: पृक्तः पुष्परजोभिश्च सुखो वाति समीरणः|| १०|| SP0670111: जलानि देवि सरितः स्वच्छानि शिशिराणि च| SP0670112: त्वत्प्रसादान्महायोगे वहन्ति विगतक्लमाः|| ११|| SP0670121: इदानीं च पुनर्जाता गिरयो गिरिजात्मजे| SP0670122: विज्वराः शिशिरस्वादुनिर्झरोदकवाहिनः|| १२|| SP0670131: फणान्स्वस्तिकचक्राङ्कानुच्चैर्दधति भोगिनः| SP0670132: उदन्वन्तश्च विश्वासादिदानीं सुखमासते|| १३|| SP0670141: भ्रमन्त्यप्सरसो देवि त्वत्प्रसादाच्च साम्प्रतम्| SP0670142: सचेतो विमले व्योम्नि विलासालसलोचनाः|| १४|| SP0670151: सिद्धाङ्गनाश्च सेवन्ते विश्वस्ता देवि साम्प्रतम्| SP0670152: शिखरेषु महीध्राणामुत्फुल्लांश्चन्दनद्रुमान्|| १५|| SP0670161: स्वभावान्मधुपानाच्च रक्तलोलविलोचनाः| SP0670162: विचरन्त्यधुना यक्षा गन्धमादनसानुषु|| १६|| SP0670171: सुखं बिभर्ति वसुधामिदानीं विगतक्लमः| SP0670172: शेषः फणैः स्वरत्नांशुवितानपरिवेषिभिः|| १७|| SP0670181: माता त्वमसि लोकानां भीतानामभयप्रदा| SP0670182: वृणु देवि वरानिष्टानभिषिच्यस्व चाच्युते|| १८|| SP0670191: एवमुक्ता सुरैर्देवी प्राह किंचित्स्मयन्निव| SP0670192: इच्छामि पितरं द्रष्टुमसमग्रेन्दुमौलिनम्|| १९|| SP0670201: सुप्रसन्नं प्रसन्नां च जननीं शैलनन्दनाम्| SP0670202: पितृभ्यां चाभ्यनुज्ञातामभिषेक्ष्यथ मां ततः|| २०|| SP0670211: एवमुक्ताः सुरा दध्युरव्यग्रमनसा तदा| SP0670212: सपत्नीकं महादेवममितद्युतिपौरुषम्|| २१|| SP0670221: अथ ते ददृशुर्देवा देवदेवमुमापतिम्| SP0670222: तेजसामिव सर्वेषां संघातं पुरतः स्थितम्|| २२|| SP0670231: जटानां प्रान्तबभ्रूणां शिरसा भारमुन्नतम्| SP0670232: बिभ्राणं ज्वलितं वह्निं दीप्तानामर्चिषामिव|| २३|| SP0670241: कर्पूरभङ्गगौरेण स्नातं पुण्येन भस्मना| SP0670242: प्रान्तहेमलताजालं रौप्यं गिरिमिवोच्छ्रितम्|| २४|| SP0670251: तेजसा स्वेन तेजांसि तिरस्कुर्वन्दिवौकसाम्| SP0670252: मध्यंदिने प्रदीपानामर्चींसीव दिवाकरः|| २५|| SP0670261: सुधाम्बुस्यन्दिनीं तन्वीमेकतः परिवेषिणीम्| SP0670262: दधानं मौलिना किञ्चित्कुटिलामैन्दवीं कलाम्|| २६|| SP0670271: विजिह्मनखरां गुर्वीं धूसरां भस्मरेणुना| SP0670272: सैंहीं वसानमालम्बामीषद्भङ्गवतीं त्वचम्|| २७|| SP0670281: छुरितोपान्तकायेन फणरत्नमरीचिभिः| SP0670282: महता भोगपतिना वक्षःस्थलविसर्पिणा|| २८|| SP0670291: भवानीं चास्य पार्श्वस्थां दीप्यमानां स्वतेजसा| SP0670292: वसानामंशुकं रक्तं कल्पपादपसम्भवम्|| २९|| SP0670301: मन्दारमालामुत्फुल्लां मत्तालिकुलसेविताम्| SP0670302: दधानामुत्तमाङ्गेन स्वरेणूत्करपिञ्जराम्|| ३०|| SP0670311: स्वःशिल्पिघटितैश्चित्रै रत्नांशुपरिवेषिभिः| SP0670312: शातकुम्भमयैः श्लाघ्यैर्भूषितां भूषणोत्तमैः|| ३१|| SP0670321: बिभ्रतीं रुचिरां शुद्धां शरच्चन्द्रांशुनिर्मलाम्| SP0670322: शिरोधरण्या महतीमेकावलिमनुत्तमाम्|| ३२|| SP0670331: अथोत्थाय सुराः सर्वे कौशिकी चानतानना| SP0670332: तयोश्चरणपद्मेषु निपेतुस्तुष्टमानसाः|| ३३|| SP0670341: अथोद्वीक्ष्य महादेवः कौशिकीमिदमब्रवीत्| SP0670342: अजेया सर्वभूतानां महायोगा महाद्युतिः| SP0670343: विचरिष्यसि लोकांस्त्वं सर्वत्राप्रतिघातिनी|| ३४|| SP0670351: इमाश्च देवताः सर्वास्त्वत्प्रसादादनिन्दिते| SP0670352: - - - - - - - - - - - - - - - -|| ३५|| SP0670361: भक्त्या बल्युपहारैश्च पूजयिष्यन्ति मानवाः| SP0670362: वरदा चापि भक्तानां भविष्यसि सदानघे|| ३६|| SP0670371: अभिषिच्यस्व च क्षिप्रं सुरैरसुरसूदनि| SP0670372: कृत्स्नं रक्ष च भूर्लोकं पूज्यमाना सदाव्यये|| ३७|| SP0670381: शर्वाणी च परिष्वज्य मूर्ध्नि चाघ्राय कौशिकीम्| SP0670382: प्राह प्रीता महाभागा मत्प्रसादाद्भविष्यसि|| ३८|| SP0670391: अर्चयन्ति यथा मां च सुरा यक्षा महोरगाः| SP0670392: गन्धर्वा मुनयः सिद्धास्तथा त्वामप्यनिन्दिते| SP0670393: अर्चयिष्यन्ति सर्वत्र भक्ताः स्तोष्यन्ति चाव्यये|| ३९|| SP0670401: एवं तस्यै वरान्दत्त्वा गिरिजावृषभध्वजौ| SP0670402: नमस्कृतौ तदा देवैरन्तर्दधतुरव्ययौ|| ४०|| SP0670411: अथेन्द्रो विश्वकर्माणमादिदेश तदा प्रभुः| SP0670412: सुधर्मेव सभा दिव्या क्रियतामिह साम्प्रतम्|| ४१|| SP0670421: ऋतूंश्च सर्वांस्तत्रेत्थमादिदेश शतक्रतुः| SP0670422: नानापुष्पोत्करैः क्षिप्रं भूमिः सम्यग्विभूष्यताम्|| ४२|| SP0670431: क्षुपगुल्मलतावृक्षपुष्परेणुसुगन्धयः| SP0670432: आक्षिपन्तो मनांस्यत्र सुखा वान्तु समीरणाः|| ४३|| SP0670441: सिञ्चन्तु वारिभिः पुण्यैर्विन्ध्यप्रस्थं पयोमुचः| SP0670442: तारं नदन्तु शिखिनः प्रहृष्टाः सर्वतोदिशः|| ४४|| SP0670451: नृत्यन्तु परितश्चित्रा दर्शयन्तः पृथग्विधान्| SP0670452: रसान्भावान्विलासांश्च सर्वे चाप्सरसां गणाः|| ४५|| SP0670461: प्रतिसार्याशु वीणाश्च गन्धर्वा मधुरस्वराः| SP0670462: लयतालसमं गेयं गायन्तु च समन्ततः|| ४६|| SP0670471: आहन्यन्तां समन्ताच्च देवदुन्दुभयो भृशम्| SP0670472: पाणिभिः कठिनैस्तूर्णं चित्ररूपा महास्वनाः|| ४७|| SP0670481: मन्दानिलसमुद्धूता लीनालिकुलपङ्क्तयः| SP0670482: पतन्त्वस्मिन्प्रदेशे च दिव्याः कुसुमवृष्टयः|| ४८|| SP0670491: उच्छ्रयन्तां समन्ताच्च पताकाश्चित्रमूर्तयः| SP0670492: ध्वजाश्च विविधाकारा हेमदण्डाः सुसंस्कृताः|| ४९|| SP0670501: अथाशु निर्मिमे तत्र विश्वकर्मा महाद्युतिः| SP0670502: नानारत्नोज्ज्वलस्तम्भां विचित्रमणिवेदिकाम्|| ५०|| SP0670511: वज्रस्फटिकनिर्यूहां जाम्बूनदमयीं शुभाम्| SP0670512: इन्द्रनीलोरुसोपानां मुक्तादामावलम्बिनीम्|| ५१|| SP0670521: सध्वजां सपताकां च घण्टास्वननिनादिताम्| SP0670522: तपोनियमयज्ञानां साक्षात्सिद्धिमिवोद्गताम्|| ५२|| SP0670531: भिन्नकालानि पुष्पानि ददृशुर्देवतास्तदा| SP0670532: समं सुपुण्यगन्धानि विचित्राणि बहूनि च|| ५३|| SP0670541: पुष्पकिञ्जल्कगर्भाश्च सुखस्पर्शाः सुगन्धयः| SP0670542: नादयन्तो मुहुर्घण्टा ववुस्तत्र समीरणाः|| ५४|| SP0670551: प्रगीताः सुरगन्धर्वा ननृतुश्चाप्सरोगणाः| SP0670552: ऋषयस्तुष्टुवुर्गीर्भिः पुण्याभिः कौशिकीं तदा|| ५५|| SP0670561: सर्वरत्नौषधैर्गन्धैः पूर्णाः पुण्यैश्च वारिभिः| SP0670562: आनीतास्तत्र कलशा हेमरत्नमयाः शुभाः|| ५६|| SP0670571: पद्मरागमयैः सिंहैश्चतुर्भिर्वज्रकेसरैः| SP0670572: उच्छ्वसद्भिरिव श्रीमदुह्यमानं हिरण्मयम्|| ५७|| SP0670581: सर्वरत्नप्रभाजालखचितोपान्तमण्डलम्| SP0670582: कल्पयामास देव्याश्च विश्वकर्मा वरासनम्|| ५८|| SP0670591: स्तुतिभिर्जयशब्दैश्च स्तूयमाना समन्ततः| SP0670592: ऋषिभिर्देवताभिश्च देवदेवसुता ततः|| ५९|| SP0670601: तस्मिन्सिंहासने दिव्ये निषसादाथ कौशिकी| SP0670602: कृतस्वस्त्ययना विप्रैः सुहुते जातवेदसि|| ६०|| SP0670611: वसाना वाससी शुक्ले कल्पद्रुमसमुद्भवे| SP0670612: मुक्तादामावबद्धाङ्गी शुक्लस्रगनुलेपना|| ६१|| SP0670621: ततः सप्तर्षयो विष्णुर्धर्मो यज्ञः प्रजापतिः| SP0670622: आदित्याः कश्यपो रुद्रा लोकपाला हुताशनाः|| ६२|| SP0670631: शैलेन्द्राः पृथिवी गङ्गा चन्द्रमा मरुतो ऽश्विनौ| SP0670632: समुद्रा वसवो लक्ष्मी सन्ध्या कीर्तिः सरस्वती|| ६३|| SP0670641: नागेन्द्रा विहगेशाश्च विविधाश्च सरिद्वराः| SP0670642: आदाय कलशान्सर्वानभ्यषिञ्चन्त कौशिकीम्|| ६४|| SP0670651: पूर्णेन्दुबिम्बप्रतिमं रत्नदण्डं महाद्युतिम्| SP0670652: जग्राह च ततश्छत्त्रं स्वयमेव शतक्रतुः|| ६५|| SP0670661: चामरैर्हेमदण्डैश्च दीर्घैश्चन्द्रांशुनिर्मलैः| SP0670662: वीजयामासुरायस्तैर्लोकपालास्तदाव्ययाम्|| ६६|| SP0670671: उवाच च ततः श्रीमान्कौशिकीं पाकशासनः| SP0670672: पाहि कृत्स्नां भुवं देवि भगिनी त्वं ममाव्यये|| ६७|| SP0670681: भक्ताननुगृहाणेशे जहि चामरकण्टकान्| SP0670682: विचरस्व समस्तांश्च लोकान्सिद्धगणार्चिता|| ६८|| SP0670691: इति वचनमथोक्त्वा कौशिकीं देवराजः SP0670692: त्रिदशगणसमेतः शुभ्रलोलोरुहारः| SP0670693: उदपतदथ विन्ध्याद्विक्षिपन्व्योम्नि नीलान् SP0670694: सलिलभरविनम्रानम्बुवाहान्समन्तात्|| ६९|| SP0670701: य इमं शृणुयान्नित्यं पठेद्वा सत्समागमे| SP0670702: इह लोके सुखं प्राप्य स याति परमां गतिम्|| ७०|| SP0679999: इति स्कन्दपुराणे सप्तषष्टो ऽध्यायः||