Skandapurāṇa Adhyāya 167: R and A recensions, sub-chapter 2 E-text generated on February 22, 2017 from the original TeX files of: Peter C. Bisschop, Early Śaivism and the Skandapurāṇa. Sects and Centres. Groningen: Egbert Forsten, 2006. SPra167.2.0010: सनत्कुमार उवाच| SPra167.2.0011: हिमवन्तस्य कूटानि मनुगम्यानि यानि तु| SPra167.2.0012: तान्यायतनचिह्नानि कालेयैकमनाः शृणु|| १|| SPra167.2.0021: महद्धिमवतः कूटं सजलाम्बुददर्शनम्| SPra167.2.0022: ख्यायते त्रिपदे तद्धि श्रुतालयमहालयम्|| २|| SPra167.2.0031: †षट्स्वराणां प्रधानेन विधानेन श्रुतस्य च| SPra167.2.0032: स प्रासादानि दिव्यानि चिक्रीक्षत शिलातलम्†|| ३|| SPra167.2.0041: यत्रैत्य देवगन्धर्वाः साप्सरोवरचारणाः| SPra167.2.0042: विचरन्ति यतात्मानो वन्द्यं पाशुपतं पदम्|| ४|| SPra167.2.0051: यत्र भूषणसंमिश्रः सरघाकुलढौकितः| SPra167.2.0052: श्रूयते चैव लोकानां कलोद्गीतरवो महान्|| ५|| SPra167.2.0061: यत्र पाशुपता मेध्या जन्मदोषमुमुक्षवः| SPra167.2.0062: तत्पदं प्राप्य ते वन्द्यं भवसालोक्यतां गताः|| ६|| SPra167.2.0071: †स्वयम्भूवचनापूज्य विघ्नकोटीशतैः सह| SPra167.2.0072: रक्ष्यते दृढमित्युक्तैर्नात्र कश्चिज्जडे वसून्†|| ७|| SPra167.2.0081: यत्र लोभान्विता ऽर्थाय रागेणैव विमोहिताः| SPra167.2.0082: ग्राम्येणानार्जवाश्चैव न पश्येयुर्नराधमाः|| ८|| SPra167.2.0091: लभन्ते तपसा पुण्यं श्रुतालयमहालयम्| SPra167.2.0092: ये पश्यन्ति न पश्यन्ति ते यमं रुषिताननम्|| ९|| SPra167.2.0101: अश्वमेधसहस्रस्य फलं यद्वादितं सुरैः| SPra167.2.0102: दृष्ट्वा महालयं पुण्यं तदेव लभते फलम्|| १०|| SPra167.2.0111: महद्धिमवतस्तस्य कूटं कूटविभूषणम्| SPra167.2.0112: देवगन्धर्वचरितं चन्दनाशोककाननम्|| ११|| SPra167.2.0121: यत्तपत्या सुवर्णार्थे पार्वत्या घनसप्रभम्| SPra167.2.0122: गौरीशिखरमित्येवं नीतं प्रख्यातिमुत्तमाम्|| १२|| SPra167.2.0131: भगवत्यनुकम्पार्थं यत्र व्याघ्रः स्वयम्भुवा| SPra167.2.0132: सोमनन्दिरिति ख्यातो महागणपतिः कृतः|| १३|| SPra167.2.0141: †कुचनिर्यासतामस्य पुत्रस्नेहातिद्रुतया†| SPra167.2.0142: कुचकुण्डमिति ख्यातं कुण्डं यत्रा† जयोत्यतम्†|| १४|| SPra167.2.0151: तद्गौरीशिखरं रम्यं ये ऽभिगच्छन्ति मानवाः| SPra167.2.0152: गोसहस्रप्रदानस्य ते फलं प्राप्नुयुर्नराः|| १५|| SPra167.2.0161: यदा च देहपर्यायं ययुः कालकृतं नराः| SPra167.2.0162: तदा गणेश्वरा भूत्वा चरन्ते ऽम्बिकया सह|| १६|| SPra167.2.0171: कूटं तत्रर्षभं नाम साम्बुगर्भाम्बुदोपमम्| SPra167.2.0172: यत्र शैलादिना प्राप्तं तपः परमभास्वरम्|| १७|| SPra167.2.0181: यच्छैलादेः प्रियार्थं च गुहारण्याभितुष्टया| SPra167.2.0182: फलेन महता जुष्टं प्राप्तं देवासुरोरगैः|| १८|| SPra167.2.0191: यत्रामरेन्द्रसदनादवतीर्य सुरस्त्रियः| SPra167.2.0192: गायन्ति विचरन्ते च नृत्यन्ति च रमन्ति च|| १९|| SPra167.2.0201: ऋषभं प्राप्य तत्कूटं नराः सत्यवतीसुत| SPra167.2.0202: गोसहस्रफलं सम्यग्विन्दन्ते उमया कृतम्|| २०|| SPra167.2.0211: यदा मरणधर्मेण संयुज्यन्ते च कालिज| SPra167.2.0212: कुशद्वीपे तदा रम्ये चरन्ति सह नन्दिना|| २१|| SPra167.2.0221: कूटमन्यद्धिमवतो मेघकूटसमप्रभम्| SPra167.2.0222: यत्र भस्त्रेश्वरं नाम रुद्रस्यायतनं शुभम्|| २२|| SPra167.2.0230: व्यास उवाच| SPra167.2.0231: कथं भस्त्रेश्वरं नाम रुद्रस्यायतनं शुभम्| SPra167.2.0232: नैतन्निष्कारणं नाम स्थानं स्थाणोश्च मानद|| २३|| SPra167.2.0240: सनत्कुमार उवाच| SPra167.2.0241: इक्ष्वाकुरभवद्राजा भगीरथ इति स्मृतः| SPra167.2.0242: कृपालुर्धर्मकृच्चैव युद्धे नारायणोपमः|| २४|| SPra167.2.0251: तस्य पूर्वे हयस्यार्थे कपिलस्य तु तेजसा| SPra167.2.0252: भस्मभूता गताः पूर्वमग्निं प्राप्येव वीरुधः|| २५|| SPra167.2.0261: †गरुत्मानहरेत्तेषां नैव देयं च विष्णुना†| SPra167.2.0262: गङ्गावतार्यतां सैषा जलधात्री भविष्यति|| २६|| SPra167.2.0271: तया चाभ्युक्षितमिदं शीतलैर्नीरजःकणैः | SPra167.2.0272: ब्रह्मलोकाधिवासाय भविष्यति सुखाय च|| २७|| SPra167.2.0281: ते तु गङ्गावतरणे नृपसिंहाः कृतोद्यमाः| SPra167.2.0282: †अक्षरैर्वर्तते क्षीणा भक्षन्त इव संरमाः†|| २८|| SPra167.2.0291: भगीरथस्त्वंशुमतः पौत्रो ऽभूत्पृथिवीपतिः| SPra167.2.0292: धार्मिकश्च कृतज्ञश्च देवभावसमन्वितः|| २९|| SPra167.2.0301: स पूर्वेषां वधं श्रुत्वा गङ्गावतरणं च तद्| SPra167.2.0302: चिन्तयामास बहुधा गङ्गावतरणं प्रति|| ३०|| SPra167.2.0311: मनोरथं स सर्वेषां समूलमुपलभ्य तु| SPra167.2.0312: तपस्तताप तपनः संज्ञयापकृतो यथा|| ३१|| SPra167.2.0321: ततो नाल्पेन कालेन लोकनाथः पितामहः| SPra167.2.0322: तुष्टो ऽभूत्तपसा तस्य तं चाह नृपसत्तमम्|| ३२|| SPra167.2.0331: भगीरथ नदी गङ्गा खाच्च्युता खेचरामला| SPra167.2.0332: †असत्प्राणहिते वासा विफला ते भविष्यति†|| ३३|| SPra167.2.0341: न वेगमवनी शक्ता गङ्गाया रोद्धुमुद्यता| SPra167.2.0342: रभसा प्रविदार्यैषा प्रवेक्ष्यति रसातलम्|| ३४|| SPra167.2.0351: मया विमुक्ता गङ्गेयं गतौ स्वच्छन्दगामिनी| SPra167.2.0352: गमिष्यति त्वया नेत्रा पूर्वकानां हिते रता|| ३५|| SPra167.2.0361: स त्वं नृपतिशार्दूल कुर्वाणो वचनं मम| SPra167.2.0362: एतां धारयितुं राजञ्छिवमाराधय प्रभुम्|| ३६|| SPra167.2.0371: स एवं ब्रह्मणा प्रोक्तो राजसिंहो भगीरथः| SPra167.2.0372: शिवं प्रपन्नः शरणं देवदानवसंघयोः|| ३७|| SPra167.2.0381: तस्य विज्ञाय तत्कार्यं कार्याकार्यविदां वर| SPra167.2.0382: †हाराम्बरनिभाः† शर्व उग्रो राजानमब्रवीत्|| ३८|| SPra167.2.0391: भगीरथ क्व सा गङ्गा यत्तां वै पततीं दिवः| SPra167.2.0392: धारयाम्युमया दत्तां पारिजातस्रजं यथा|| ३९|| SPra167.2.0401: तच्छिवस्य शिवं वाक्यं चारणैश्चारणप्रभैः | SPra167.2.0402: पिशुनायद्भिराख्यातं गङ्गाया दुष्टचिन्तकैः|| ४०|| SPra167.2.0411: †तस्य गङ्गा मतं भूतं शार्दूलं कुम्भिवाससः†| SPra167.2.0412: तत्श्रुत्वा चारणाख्यातं गङ्गा प्राह तदा वचः| SPra167.2.0413: नयाम्येषा सुवेगेन देवदेवं रसातलम्|| ४१|| SPra167.2.0421: तस्या मतं स विज्ञाय हृदा तेन विचिन्तितम्| SPra167.2.0422: अजरूपं समास्थाय एकशृङ्गं महत्तरम्| SPra167.2.0423: धारयामि नदीं गङ्गां त्रिवेगां वेगगर्भिताम्|| ४२|| SPra167.2.0431: भगीरथेन संतुष्टा गङ्गा गोवृषवाहनम्| SPra167.2.0432: तोषयित्वा नदी †ध्याता† निपपात त्रिधापि च|| ४३|| SPra167.2.0441: घोररूपैस्त्रिभिश्चैव अवतारं तदाकरोत्| SPra167.2.0442: अजरूपमजश्चक्रे पुरा चैकजटो जटी|| ४४|| SPra167.2.0451: सैकया जटया तां स्त्रीं †लयभोगोगोपकालनम्†| SPra167.2.0452: आदधार क्षयस्यार्थे स्रजमालां यथा हरः|| ४५|| SPra167.2.0461: दिव्यं वर्षसहस्रं तु जटयैकजटो जटी| SPra167.2.0462: धारयामास वै गङ्गां भिन्नस्रोतां महानदीम्| SPra167.2.0463: नादृश्यत जटाध्वस्ता सा त्वेकस्य त्रिधारगा|| ४६|| SPra167.2.0471: भगीरथो ऽपि मोक्षार्थं गङ्गाया †जलविद्रुमः †| SPra167.2.0472: तस्थावाराधयञ्छर्वमुग्रमुग्रपतिं भवम्|| ४७|| SPra167.2.0481: पूर्णे वर्षसहस्रे तु पूर्णमानस ईश्वरः| SPra167.2.0482: उत्स्रष्टुकामस्तां गङ्गां राजानमिदमब्रवीत्|| ४८|| SPra167.2.0491: गर्वितां गर्भितां चैव गङ्गां चपलमूर्तिकाम्| SPra167.2.0492: त्वत्कृते ऽद्य विमोक्ष्यामि रहोभुक्तामिवाङ्गनाम्|| ४९|| SPra167.2.0501: याहि स्वं रथमास्थाय यत्र ते पूर्वका हताः| SPra167.2.0502: अम्बुवेगेन महता गङ्गैषा त्वानुगच्छतु|| ५०|| SPra167.2.0511: नात्यर्थं प्रवहा सापि अजशृङ्गाद्विनिःसृता| SPra167.2.0512: भगीरथरथं गङ्गा अनुदुद्राव निम्नगा|| ५१|| SPra167.2.0521: अजो ऽपि अजरूपेण तेनैवाम्बुदवाहनः| SPra167.2.0522: तस्मिन्हिमवतः शृङ्गे तस्थावेकः प्रभामयः|| ५२|| SPra167.2.0531: भस्त्रेत्युक्ता जनायित्री वचोभिः परमर्षिभिः| SPra167.2.0532: मातृवच्च बिभर्त्येष लोकांल् लोकपतिर्भवः|| ५३|| SPra167.2.0541: अतो ऽनेन निरुक्तेन निरुक्तः पतिरीश्वरः| SPra167.2.0542: तस्मिन्स्थाने भवो देवो भस्त्रेश्वर इति स्मृतः|| ५४|| SPra167.2.0551: तद्वै देवर्षिगन्धर्वाः किंनरोरगचारणाः| SPra167.2.0552: भवायतनमासाद्य नेमुः सुमनसो भवम्|| ५५|| SPra167.2.0561: मृत्योर्भीताश्च पुरुषा दारिद्रैरपि चार्दिताः | SPra167.2.0562: तदायतनमासाद्य लेभुर्लोकान्सनातनान्|| ५६|| SPra167.2.0571: ब्रह्मणश्चापि यत्पुण्यं यच्चापत्यफलं स्मृतम्| SPra167.2.0572: एकस्थं लभते मर्त्यो दृष्ट्वा भस्त्रेश्वरं त्वजम्|| ५७|| SPra167.2.0581: गङ्गाद्वारे शुभद्वारे स्वर्गद्वारे महात्मना| SPra167.2.0582: दक्षेण स्थापितं पुण्यं महदायतनं शुभम्|| ५८|| SPra167.2.0591: वृक्षाः कनखला नाम यत्र ते कनकामयाः| SPra167.2.0592: मानुषाणामशीलत्वात्संवृत्ता दारवः पुनः|| ५९|| SPra167.2.0601: हस्तप्राप्यो यतः स्वर्गो यत्र धर्मस्य धाम च| SPra167.2.0602: षष्टिर्धनुःसहस्राणि षष्टिर्धनुःशतानि च| SPra167.2.0603: पापानां प्रतिषेधार्थं यत्र रक्षन्ति नित्यशः|| ६०|| SPra167.2.0611: विश्वात्मा यत्र विश्वेशः शम्भुरेकादशात्मकः| SPra167.2.0612: नित्यं संनिहितो रुद्रो अश्वामुख इवानलः|| ६१|| SPra167.2.0621: तृषार्ता इव पानीयं बुभुक्षार्ता इवाशनम्| SPra167.2.0622: यन्नरा ऽभिगमिष्यन्ति जन्मदोषमुमुक्षवः|| ६२|| SPra167.2.0631: यत्तूपवासे ऽग्निनिषेवणे च तुरङ्गमेधे च फलं निरुक्तम्| SPra167.2.0632: तद्वै फलं दृश्य नरो लभेत एतत्त्रिदृष्टिर्भगवानुवाच|| ६३|| SPra167.2.0641: यत्रैत्य देवाः सहपूर्वदेवाः ससिद्धगन्धर्वभुजंगयक्षाः| SPra167.2.0642: सन्ध्यां समीयुः प्रयताश्च नेमुः सर्वे ऽपि चन्द्रार्धधरं गिरीशम्|| ६४|| SPra167.2.0651: यमं न पश्यन्ति न ते म्रियन्ते ये ऽसूंस्त्यजन्त्यत्र भवं नमन्तः| SPra167.2.0652: विमानवर्येषु सहाप्सरोभिः स्थिताश्चरेयुः सह देवसंघैः|| ६५|| SPra167.2.9999: इति स्कन्दपुराणे भस्त्रेश्वराख्यानं नाम||