Skandapurāṇa Adhyāya 167: R and A recensions, sub-chapter 5 E-text generated on February 22, 2017 from the original TeX files of: Peter C. Bisschop, Early Śaivism and the Skandapurāṇa. Sects and Centres. Groningen: Egbert Forsten, 2006. SPra167.5.0010: सनत्कुमार उवाच| SPra167.5.0011: नर्मदाप्रभवो यो ऽस्ति गिरिः कृष्णशिलातलः| SPra167.5.0012: यत्र कालं जरितवान्कालान्वीतस्य शंकरः|| १|| SPra167.5.0021: देवस्यायतनं तत्र †उत्तरायसमंप्रभम्†| SPra167.5.0022: कृतं कृतिमतां श्रेष्ठ श्वेतेन परमर्षिणा|| २|| SPra167.5.0031: श्वेतेनाभ्यर्च्य वै यत्र देवतार्तिहरं हरम्| SPra167.5.0032: अवरुद्धमनुप्राप्तं यमराजस्य मर्दनम्|| ३|| SPra167.5.0041: †श्वेतार्थं यत्र रूपेण मृतस्त्रिषु पुरङ्गवः| SPra167.5.0042: मातापित्रोः सप्रणामो देहबन्धपुरःकृतः†|| ४|| SPra167.5.0051: कालं जरितवांस्तत्र तस्मिञ्छैले त्रिलोचनः| SPra167.5.0052: तेन कालञ्जर इति स ख्यातः पर्वतोत्तमः|| ५|| SPra167.5.0061: इहैत्यामरलोकाच्च देवगन्धर्वचारणाः| SPra167.5.0062: †रमणीये तु सन्ति स्म साप्सरोवरसंभृताः†| SPra167.5.0063: गतास्ते चापि मोदन्ते रुद्रलोकं यथामराः|| ६|| SPra167.5.0071: †स्वार्यया यत्फलं प्रोक्तं यच्च स्वागतवादिषु†| SPra167.5.0072: तदेवाप्नोति पुरुषो दृष्ट्वा कालञ्जरं हरम्|| ७|| SPra167.5.0081: पुष्पभद्रमिति ख्यातं विन्ध्यप्रस्थे द्रुमावृतम्| SPra167.5.0082: भवस्यायतनं पुण्यं देवगन्धर्वसेवितम्|| ८|| SPra167.5.0091: यत्तद्रावणपुत्रेण मेघनादेन रक्षसा| SPra167.5.0092: स्थापितं तोषयामास सर्वभूतपतिं पतिम्|| ९|| SPra167.5.0101: यत्र मन्दोदरीपुत्रः शूलिना चन्द्रमौलिना| SPra167.5.0102: मायारथप्रदानेन तोषितो † वर† राक्षसः|| १०|| SPra167.5.0111: यं दृष्ट्वा चाभिगत्वा च प्रणम्य च शिवं शिवम्| SPra167.5.0112: पुरुषाः स्वर्गमायान्ति तीर्त्वा चैव यमक्षयम्|| ११|| SPra167.5.0121: अन्ध्रेष्वायतनं चास्ति रुद्रस्य परमात्मनः| SPra167.5.0122: नाम्ना चित्ररथं नाम †इह तावन्मनोभव†|| १२|| SPra167.5.0131: सृष्ट्वा †तु ते यथावच्च तस्य† देवस्य धीमतः| SPra167.5.0132: चित्रितो †नुमितात्मानः† ताराचन्द्रदिवाकरैः|| १३|| SPra167.5.0141: †यत्रागत्या बभूवुश्च नागा यत्रालिपाणयः†| SPra167.5.0142: बभूव सारथिर्यत्र ब्रह्मा लोकपितामहः|| १४|| SPra167.5.0151: सम्यगिष्टे तु यत्प्रोक्तमश्वमेधे फलं बुधैः| SPra167.5.0152: तच्चित्ररथमासाद्य फलं भवति शाश्वतम्|| १५|| SPra167.5.0161: यदा च पुरुषो मर्त्यो युज्यते कालधर्मणा| SPra167.5.0162: तदा सर्वेषु लोकेषु चरते देवराडिव|| १६|| SPra167.5.0171: अन्यद्युक्तरथं नाम भवस्यायतनं शुभम्| SPra167.5.0172: नरचारणसिद्धौघै रमणीयमलंकृतम्|| १७|| SPra167.5.0181: यन्ता यत्र कृतो ब्रह्मा शर्वेण सपुरंदरः| SPra167.5.0182: दृष्ट्वा ब्रह्मा स्वयं वाहान्संयोजयति शूलिनः|| १८|| SPra167.5.0191: रथो देवातिदेवस्य उद्युक्तो ब्रह्मणा स्वयम्| SPra167.5.0192: तेन युक्तरथं नाम तदायतनमुच्यते|| १९|| SPra167.5.0201: दृष्टं युक्तरथं यैस्तु मनोरथकरं नृणाम्| SPra167.5.0202: †नारीगीतरवैस्तारैर्वसन्तीन्द्रसदोगताः†|| २०|| SPra167.5.0211: अन्यच्छ्रीपर्वतो नाम पर्वतः श्रीनिकेतनः| SPra167.5.0212: सिद्धगन्धर्वरुचिरः सिद्धक्षेत्रमनुत्तमम्|| २१|| SPra167.5.0221: यत्र स्थाणोर्भगवतो लिङ्गानां धर्मभूतिनाम्| SPra167.5.0222: सहस्रं स्थापितं व्यास शिलादेन महात्मना|| २२|| SPra167.5.0231: अर्धानि दारवान्यत्र स्वर्णान्यर्द्धानि कालिज| SPra167.5.0232: दारवान्यत्र दृश्यन्ते स्वर्णानि तु न मानुषैः|| २३|| SPra167.5.0241: ये तु भक्ताः सदेशानं तत्र सिद्धिमुपागताः| SPra167.5.0242: ते तानि स्वर्णलिङ्गानि पश्यन्त्यहतचक्षुषा| SPra167.5.0243: मनसाप्यभिगच्छन्ति †न तोरेव स्वत क्षयम्†|| २४|| SPra167.5.0251: ततो दक्षिणगोकर्णं समुद्रे दक्षिणे कृतम्| SPra167.5.0252: वर्षं यत्र तपश्चीर्णं राक्षसैः कृतजागरैः || २५|| SPra167.5.0261: रावणेन च शूरेण कुम्भकर्णेन तेन च| SPra167.5.0262: विभीषणेन शान्तेन शूर्पणख्या च कालिज|| २६|| SPra167.5.0271: †यत्र धर्मव्रतं चित्तं लब्धरक्षो विभीषणः| SPra167.5.0272: दुर्ल्लभञ्चामरत्वम्मे ब्राह्माचारस्तमद्युतम्†|| २७|| SPra167.5.0281: तस्योत्तरे च कालेय गोकर्णस्य समं हितम्| SPra167.5.0282: नाम्ना गोकर्णमित्येवं स्थापितं रावणेन यत्|| २८|| SPra167.5.0291: यद्राक्षसशतैर्नूतं सिद्धिकामैः समाहितैः| SPra167.5.0292: पुष्पोपहारैरन्नाद्यैर्नमोभिश्च महार्चनैः|| २९|| SPra167.5.0301: स्पृक्कया जातया तत्र लङ्कासु मलयाद्रिषु| SPra167.5.0302: अर्च्यते भगवान्देवो †निर्माल्यं तदपैति सः†|| ३०|| SPra167.5.0311: एत्य राक्षसशार्दूलो यत्राद्यापि विभीषणः| SPra167.5.0312: सर्वदा नियमादीनि कुरुते भवभक्तिमान्|| ३१|| SPra167.5.0321: मर्त्या ये त्वभिगच्छन्ति गोकर्णायतनाश्रमम्| SPra167.5.0322: अश्वमेधावभृथवत्तथा ते यान्ति पूतताम्|| ३२|| SPra167.5.0331: जम्बुद्वीपावकाशे तु तस्मिन्नेव तपोधन| SPra167.5.0332: हरिश्चन्द्र इति ख्यातो अस्ति पर्वतपुङ्गवः|| ३३|| SPra167.5.0341: भृगुवंशप्रसूतेन यत्र रामेण धीमता| SPra167.5.0342: पुण्यमायतनं रौद्रं सर्वतो ऽलंकृतं कृतम्|| ३४|| SPra167.5.0351: यत्रारण्यं शरण्यं च मृगाधिपतनूभृताम्| SPra167.5.0352: तापसावासबहुलं वरवारणसंकुलम्|| ३५|| SPra167.5.0361: क्षत्रियान्तकरो यत्र रामो भृगुरिवापरः| SPra167.5.0362: राध्य वर्षशतं सोममास्ते कृत्स्नास्त्रपारगः|| ३६|| SPra167.5.0371: यत्र देवाश्च सिद्धाश्च सुराश्चाप्सरसां गणाः| SPra167.5.0372: व्रतिनः सोपवासाश्च चेरुर्नेमुश्च शंकरम्|| ३७|| SPra167.5.0381: हरिश्चन्द्रस्य तच्छृङ्गमाकूटं यैर्निरीक्षितम्| SPra167.5.0382: तेषां मुखारविन्दानि निरीक्षन्ते ऽप्सरोवराः|| ३८|| SPra167.5.0391: उत्तरे नर्मदातीरे †योजनद्वयिकेतर†| SPra167.5.0392: कारोहणमिति ख्यातं त्रिनेत्रायतनं महत्| SPra167.5.0393: यत्र कः कां तपस्यन्तीमारुरोह प्रजापतिः|| ३९|| SPra167.5.0401: †ऋषिभूतो महानूचे कश्यपः कश्यपस्तदा†| SPra167.5.0402: स्त्रीरूपधारिणो भूत्वा तपश्चरति सो ऽव्ययम्|| ४०|| SPra167.5.0411: के तपन्तीति संपृष्टः सिद्धैराश्रममण्डले| SPra167.5.0412: आरुरोह दिवं तात तस्मिन्देशे स कश्यपः|| ४१|| SPra167.5.0421: पितामहो महात्मा वै कश्यपाय ददौ वरम्| SPra167.5.0422: पुत्रं वंशकरं श्रेष्ठं राजवंशकरं तथा|| ४२|| SPra167.5.0431: जनयिष्यसि धातारं त्वष्टारं द्वादशात्मकम्| SPra167.5.0432: स देशः परमः पुण्यः सर्वदेशाद्विशिष्यते|| ४३|| SPra167.5.0441: तत्र ब्रह्मासृजत्सर्गं युगमन्वन्तराणि च| SPra167.5.0442: काष्ठां कलां मुहूर्तं च लवं संवत्सरं रितुम्|| ४४|| SPra167.5.0451: मासान्पक्षानहोरात्रानिति संसृष्टवान्प्रभुः | SPra167.5.0452: पुण्यायतनतीर्थानि ससर्ज भगवांस्तदा| SPra167.5.0453: दिवा जाग्रति भूतानि सुप्ते क्षयमुपैति च|| ४५|| SPra167.5.0461: एवं संसृष्टवान्देवः परमेष्ठी प्रजापतिः| SPra167.5.0462: †स देशे पुण्यभूत्तत्र† तदेकाग्रमनाः शृणु|| ४६|| SPra167.5.0471: क्षीणे कृतयुगे व्यास त्रेतायुग उपस्थिते| SPra167.5.0472: तस्मिन्देशे ऽत्यजत्पादं धर्मो धर्मभृतां वर| SPra167.5.0473: द्वितीयं द्वापरे प्राप्ते तृतीयं च कलौ युगे|| ४७|| SPra167.5.0481: चतुर्थेनावतस्थे च यतः स भगवान्प्रभुः| SPra167.5.0482: धर्मपादनिपातेन स देशो देशिनां वर| SPra167.5.0483: पुण्यः पवित्रः सेव्यश्च देवानामपि दुस्त्यजः|| ४८|| SPra167.5.0491: भारभूतिः कृते भूत्वा तस्मिन्देशे तदा प्रभुः| SPra167.5.0492: भारं बद्ध्वा द्विजातीनां नर्मदायां विचिक्षिपे|| ४९|| SPra167.5.0501: त्रेतायां दिण्डिमुण्डश्च शिरांसि विनिकृत्तवान्| SPra167.5.0502: द्वापरे चाषढिर्भूत्वा नृत्येनानुगृहीतवान्|| ५०|| SPra167.5.0511: एवं युगे युगे व्यास तस्मिन्देशे शिवः स्वयम्| SPra167.5.0512: अवतीर्णो ऽनुजग्राह ब्राह्मणान्पुण्य इत्युत|| ५१|| SPra167.5.0521: †आर्याय यत्प्रमाणं तु यत्र माक्रान्तमीश्वरः †| SPra167.5.0522: कृते ऽस्य तत्रायतनं तैरेव विनिवेशितम्|| ५२|| SPra167.5.0531: तत्पुण्यं च पवित्रं च तद्धाम परमं महत्| SPra167.5.0532: तत्र ये पञ्चतां यान्ति रुद्रलोके वसन्ति ते|| ५३|| SPra167.5.0540: व्यास उवाच| SPra167.5.0541: किं कारणं तु भगवांस्तस्मिन्देशे तदा भवः| SPra167.5.0542: भारं बद्ध्वानतान्विप्रान्नर्मदायां क्षिपेत्प्रभुः|| ५४|| SPra167.5.0550: सनत्कुमार उवाच| SPra167.5.0551: ब्राह्मणानुग्रहाकाङ्क्षी अवतीर्णो बभूव ह| SPra167.5.0552: कुलक्षये पाण्डवानां निधने द्वापरस्य च| SPra167.5.0553: कलौ च समनुप्राप्ते युगे हीने फलाधमे|| ५५|| SPra167.5.0561: चतुर्मुखः पञ्चमुखः शताननकरेक्षणः| SPra167.5.0562: शिक्षयामास वर्णानां शोकार्तानां सुखं हरः|| ५६|| SPra167.5.0571: प्रजापालनधर्मेण क्षत्रियाः स्वर्गगामिनः| SPra167.5.0572: कृषिगोरक्षवाणिज्यैर्वैश्याः स्वर्गमुपाययुः| SPra167.5.0573: ब्रह्मक्षत्रविशां भक्त्या शूद्रास्त्रिवर्णसेवनात्|| ५७|| SPra167.5.0581: अनारम्भान्स वै दृष्ट्वा ब्राह्मणान् †ब्राह्मणैकशः†| SPra167.5.0582: वर्णेषु न विशेषो ऽस्ति वर्णास्ते कृत्रिमाः समाः|| ५८|| SPra167.5.0591: अकिंचना दरिद्राश्च मूकान्धबधिरा जडाः| SPra167.5.0592: स्वाध्यायहीना विप्राश्च परकीयान्नभोजनाः|| ५९|| SPra167.5.0601: परस्परविवादास्ते परस्परविलुण्ठकाः| SPra167.5.0602: क्रोधलोभभयोपेता दम्भमोहान्वितास्तथा|| ६०|| SPra167.5.0611: देवार्चनविहीनाश्च दानमानविवर्जिताः| SPra167.5.0612: खट्वारूढास्तथा चान्ये गायनाः शिल्पजीविनः|| ६१|| SPra167.5.0621: शस्त्राजीवाः परप्रेष्याः शूद्राज्ञाकारिणस्तथा| SPra167.5.0622: हीनवर्णप्रतिग्राहा वेदोंकारविवर्जिताः|| ६२|| SPra167.5.0631: लागुडाः कलहर्तारः स्वल्पदृष्ट्यान्विता द्विजाः| SPra167.5.0632: †अन्यतो बान्धवा देवा अन्यतो रेमिरे तथा†|| ६३|| SPra167.5.0641: त्यक्ताचाराः †स्प्रष्टघृणा घृणया च समन्विताः †| SPra167.5.0642: कामुकाः †पतिवस्याकाः † वेश्याजीवाः परस्त्रियः || ६४|| SPra167.5.0651: ये विना ब्राह्मणं कर्म अन्यकर्मरता द्विजाः| SPra167.5.0652: अन्याय्यमनुवर्तन्तो बाधयन्ति परस्परम्|| ६५|| SPra167.5.0661: यथा नाभिलषन्ति स्म वर्णाश्चाण्डालभोजनम्| SPra167.5.0662: †शूद्रान्नानि च तथा तथा दुर्मनसे ऽपि च| SPra167.5.0663: नान्येवं भूमिदेवैस्तु सूक्तानि प्रथमं च या†|| ६६|| SPra167.5.0671: ब्राह्मणा देवता नान्ये भूतले संप्रकीर्तिताः| SPra167.5.0672: एते रक्ष्याः प्रयत्नेन देवैरपि सवासवैः|| ६७|| SPra167.5.0681: पवित्राणि हवींष्येव मृगयन्त्यमृतं यथा| SPra167.5.0682: अभोज्यान्नान्यपि सुरां बुभुजुर्दुष्टमानसाः| SPra167.5.0683: ते च भुक्तावशिष्टानि देवद्विजहुताशनैः|| ६८|| SPra167.5.0691: क्षुधाभयं मृत्युभयं गर्भशय्याभयं तथा| SPra167.5.0692: यस्त्रायेद्ब्राह्मणांस्तेभ्यस्तस्य सर्वाभयं भवेत्|| ६९|| SPra167.5.0701: तद्दुःखसंकुलं ज्ञात्वा मानुष्यं बुद्बुदोपमम्| SPra167.5.0702: कदलीस्कन्धनिःसारं शरदभ्रबलं यथा| SPra167.5.0703: ज्ञानप्लवेन संतीर्य ब्राह्मणान् †देवदानवान्†|| ७०|| SPra167.5.0711: शिष्यैः शिष्यप्रशिष्यैश्च †कदाचिच्छासनास्तथा†| SPra167.5.0712: निस्तारयिष्यन्विप्राणां महादेवः प्रजापतिः|| ७१|| SPra167.5.0721: इत्येवं चिन्तयित्वा तु चतुरश्चतुराननः| SPra167.5.0722: समं चतुर्भ्यो वक्त्रेभ्यः सृजते पुरुषांस्तदा|| ७२|| SPra167.5.0731: ते ज्वलन्त इवादित्याश्चत्वार इव चाग्नयः| SPra167.5.0732: चत्वारः पुरुषा देवं स्तुवन्त उपतस्थिरे|| ७३|| SPra167.5.0741: स्तूयमानस्तु भगवान्हूयमानश्च तैः सुतैः| SPra167.5.0742: तानुवाच महातेजाः शिष्यानिष्टान्महेश्वरः|| ७४|| SPra167.5.0751: शासनं कुरुते यद्धि गुरुः शास्त्रसमन्वितम्| SPra167.5.0752: गुरोर्वचनमादृत्य शिष्याणां तेन शिष्यता|| ७५|| SPra167.5.0761: ते यूयं मन्नियोगेन लोकानुग्रहकारणात्| SPra167.5.0762: †यथा मानुषलोकाय ब्राह्मणांस्त्रायते हरः†|| ७६|| SPra167.5.0771: †आचाराध्ययनाश्चैव† विप्रान्संत्रातुमर्हथ| SPra167.5.0772: ममाज्ञां तु कुरुध्वं वै कुरुताज्ञां तु मामिकाम्|| ७७|| SPra167.5.0781: अभिवाद्य ततः सर्वे कृत्वा चैव प्रदक्षिणम्| SPra167.5.0782: नमस्कृत्य महात्मानं सर्वभूतपतिं पतिम्|| ७८|| SPra167.5.0791: तमूचुस्ते ततो हृष्टाश्चत्वारः संशितव्रताः| SPra167.5.0792: यथाज्ञापयसीत्युक्त्वा चत्वारः संशितव्रताः || ७९|| SPra167.5.0801: प्रथमो †विदको नाम† कौशिको नाम गोत्रजः| SPra167.5.0802: द्वितीयो गार्ग्य इत्येव जम्बुमार्गे सुतापसः|| ८०|| SPra167.5.0811: तृतीयश्चाभवन्मित्रो मथुरायां महामनाः| SPra167.5.0812: ब्रह्मचारी चतुर्थस्तु कुरुष्वेव सुगोत्रजः|| ८१|| SPra167.5.0821: भगवानपि देवेशः परमैश्वर्यसंयुतः| SPra167.5.0822: अत्रेर्वंशप्रसूतस्य नाम्ना वै वृद्धशर्मणः|| ८२|| SPra167.5.0831: †चत्वार ऋषयो यत्र चतुर्व्वक्त्रे महेश्वरे| SPra167.5.0832: पुनः प्रणम्य देवेशं सहिता वृद्धशर्मणः| SPra167.5.0833: पुरा कल्प† प्रदानेन अनुजग्राह भूतपः|| ८३|| SPra167.5.0841: अनुगृह्य तदा व्यास भगवांल् लोकपस्ततः| SPra167.5.0842: जगामोज्जयनीं तत्र श्मशानं च विवेश ह|| ८४|| SPra167.5.0851: स तत्र भस्मना स्नातः आस्तोमापतिरीश्वरः| SPra167.5.0852: सगणो गणपस्तत्र देवो भूतपतिः पतिः|| ८५|| SPra167.5.0861: तत्र प्रथममादाय शिष्यं शिष्यविदां वरः| SPra167.5.0862: जम्बुमार्गे द्वितीयं च मथुरायां तथापरम्|| ८६|| SPra167.5.0871: कान्यकुब्जे तथा चान्यं स्थापयित्वा महातपाः| SPra167.5.0872: धर्मं यथार्थं शिष्ट्वा च उवाचेदं तदा विभुः|| ८७|| SPra167.5.0881: रहस्यवर एषो मे पालनीयः प्रयत्नतः| SPra167.5.0882: अधर्मं दूरमुत्सृज्य धर्मे च कुरुतां मतिम्|| ८८|| SPra167.5.0891: श्रुतिस्मृतिविरुद्धं यत्तदधर्मं परित्यजेत्| SPra167.5.0892: †भूताश्चैवान्तरा ज्ञात्वा तत्र भूतपतिस्तदा†| SPra167.5.0893: प्रसारयत धर्मांश्च आदित्यादिव रश्मयः|| ८९|| SPra167.5.0901: अथ ते वचनं तस्य श्रुत्वा तु ऋषयस्तदा| SPra167.5.0902: नेमुः साम्बं तदा देवं सगणं तु गणाधिपम्|| ९०|| SPra167.5.0911: तानुवाच ततः शिष्यांश्चतुरः सहितांस्तथा| SPra167.5.0912: दृढीकरणमेतेषां पुनरेवाभ्यभाषत|| ९१|| SPra167.5.0921: धर्मे बुद्धिः प्रकर्तव्या धर्मे च चरतः सदा| SPra167.5.0922: अधर्मे मा मनः कार्षीः स च धर्मार्थिनः पथः|| ९२|| SPra167.5.0931: वेदोदितं च यद्वाक्यं तद्धर्म्यं धर्मसंज्ञितम्| SPra167.5.0932: †हेतुसिद्धान्तरादेव न तं बुध्यं† तपोधनाः|| ९३|| SPra167.5.0941: पुरा विरिञ्चिना प्रोक्तमेतद्धर्मार्थसंहितम्| SPra167.5.0942: षट्कर्मनिरताश्चैव भविष्यथ समाहिताः|| ९४|| SPra167.5.0951: †वचनं सुलभं तेषामिष्टापूर्ण्णहराध्वरम्| SPra167.5.0952: इदमेव दिनं चैव इदमेव न चान्यथा†|| ९५|| SPra167.5.0961: शिष्याणामुपदेष्टव्यं शुश्रूषणपरा हि ये| SPra167.5.0962: शिष्या वै ये हिता मह्यमहं युष्मान्यथापि च| SPra167.5.0963: निष्पन्नानां तु शिष्याणां गुह्यं वेदितुमर्हथ|| ९६|| SPra167.5.0971: स्नायन्तो भस्मना मर्त्याः क्षान्ता दान्ता जितेन्द्रियाः| SPra167.5.0972: †आवर्त्तयमिहेन्द्राणां कर्तव्यं विविधोत्तमाः †|| ९७|| SPra167.5.0981: नदीतीरेषु मेध्येषु मेध्येष्वायतनेषु च| SPra167.5.0982: शून्यागारेष्वरण्येषु वासो वो मन्नियोगतः|| ९८|| SPra167.5.0991: दशकोटिसहस्राणि दशकोटिशतानि च| SPra167.5.0992: कोटीशतसहस्राणि विप्राणां तारयिष्यथ|| ९९|| SPra167.5.1001: ततो धर्मचयापूर्णा जलपूर्णा इवाम्बुदाः| SPra167.5.1002: पूर्वं कृतयुगे प्राप्ते मामेवाथ प्रवेक्ष्यथ|| १००|| SPra167.5.1011: चत्वार एवमुक्तास्ते चत्वार इव पावकाः| SPra167.5.1012: †चतुर्णां जातका वा वै तापसः परिवारितः†|| १०१|| SPra167.5.1021: शुचयः संयतात्मानः सत्यज्ञानरताः सुताः| SPra167.5.1022: †सुखे जातो महालस्य सोमचिह्नस्य धीमतः†| SPra167.5.1023: अग्निजा इव दीप्यन्ते द्वादशार्कसमप्रभाः|| १०२|| SPra167.5.1031: †तत्र तं† कौशिको जज्ञे ततो गार्ग्यस्तु जज्ञिवान्| SPra167.5.1032: †मित्रोपराद्दक्षिणा च चक्रवत्तस्य उच्यते†|| १०३|| SPra167.5.1041: एते भगवतः शिष्या भवतुल्याः प्रभावतः| SPra167.5.1042: धर्मपादाङ्किते देशे अवतीर्णस्य जज्ञिरे|| १०४|| SPra167.5.1051: स देशो धर्मपादाङ्कः शशाङ्क इव निर्मलः| SPra167.5.1052: आश्रयो योगिनां यत्र प्रवृत्तः पापनाशनः|| १०५|| SPra167.5.1061: †एते शिष्या महादेव शिष्यायाः शिशुरालसः†| SPra167.5.1062: तेषां शिष्यैः प्रशिष्यैश्च ओघैः सागरराडिव| SPra167.5.1063: जम्बुद्वीपार्णवः पूर्णो भस्मरूषितमूर्तिभिः|| १०६|| SPra167.5.1071: †सारोहण प्रचुर्यतः सद्दान्तो हि इवाध्वरम्| SPra167.5.1072: गतयश्चाभवत्तेषां लभस्ते नात्र शंशयः†|| १०७|| SPra167.5.1081: महीनर्मदयोर्मध्ये सह्यस्य च यदुत्तरम्| SPra167.5.1082: एतत्प्रजापतेः क्षेत्रं पुराणमृषिवन्दितम्| SPra167.5.1083: सर्वपापविहीनश्च इष्टां प्राप्नोति वै गतिम्|| १०८|| SPra167.5.1091: एतानि दिवि पुण्यानि भूमौ चायतनानि च| SPra167.5.1092: सर्वायतनश्रेष्ठानि शिवगुह्यानि चाम्बिके|| १०९|| SPra167.5.1101: नमस्कार्याणि सर्वाणि कथितानि मयानघे| SPra167.5.1102: वरदानि वरेण्यानि वरदैः शोभितानि च|| ११०|| SPra167.5.1111: भवन्ति येषां पुरुषाः पूता नामग्रहादपि| SPra167.5.1112: किं तेषां तपसा भूयः कार्यमस्ति तपोधने|| १११|| SPra167.5.1121: पुण्यायतननामानि कीर्तयिष्यन्ति ये नराः| SPra167.5.1122: पितृमेधाश्वमेधेषु नरमेधेषु चैव हि| SPra167.5.1123: अग्निष्टोमातिरात्रेषु सर्वेषु च क्रतुष्वपि|| ११२|| SPra167.5.1131: भवायतननामानि पावनानि विशेषतः| SPra167.5.1132: विनीतस्य तु श्राव्याणि दीक्षितस्याग्र इत्यपि|| ११३|| SPra167.5.1141: धनधान्यसमायुक्ताः पुत्रवन्तः सुखान्विताः| SPra167.5.1142: भवन्ति पुरुषा भेदे देहस्य च गणेश्वराः|| ११४|| SPra167.5.1151: भवप्रियेष्वायतनेषु ये नराः प्रयान्ति मृत्युं नियमं चरन्ति वै| SPra167.5.1152: भवप्रियास्ते भवलोकगामिनो भवानुगास्ते ऽत्र भवन्ति छन्दतः|| ११५|| SPra167.5.1161: †शतवरणाभरणालोमक† शतनयनो ऽप्यतिदीप्तिमूर्तिमान्| SPra167.5.1162: स कनकतापनपावकद्युतिर्जयति जयं जयभावकृद्भवः|| ११६|| SPra167.5.9999: इति स्कन्दपुराणे आयतनवर्णने भविष्योत्पत्तिः||